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आज एक नयी बहस छिड़ी है क्या गोरा रंग ही श्रेष्ठ है,
“सर्वाइवल ऑफ़ फिटेस्ट तो सुना था “, पर क्या ये बहस उस ओर चर्चा का रुख नहीं मोड़ती जहाँ दुनिया “सर्वाइवल ऑफ़ फैरेस्ट ” की तरफ जाती दिख रही है , अर्थात जो अधिक गोरा है वो श्रेष्ठ है, एक कटु सत्य तो यह भी है की गोरे आज भी किसी न किसी रूप में दुनिया पर शाशन कायम रखे हुए हैं | अवश्य ही आप सोच रहे हैं की प्रोपोगेंडा का भला इससे क्या सम्बन्ध, बात स्पष्ट है ज्यादा टेढ़ी, घुमावदार नहीं , प्रोपोगेंडा आज भी उस शाशन को कायम रखने के जो पन्नों में अतीत हो चुकी है, ये प्रोपोगेंडा है उस अतीत को कायम रखने का,
“यह नीड मनोहर कृतियों का ,
यह विश्व रंग कर्म स्थल है |
है परंपरा चल रही यहाँ ,
ठहरा जिसमे जितना बल है” ||
आशय स्पष्ट है जो बलवान है वो राज करेगा , तात्कालिक दृष्टिकोण ये कहता है कि आज बल कि परिभाषा भी बदल चुकी है, आज गुलाम बनाने कि प्रक्रिया भी बदल रही है , समय मानसिक बढ़त का है, आज बड़ी शक्तियां युद्ध कि जगह युद्ध नीतियां बनती हैं , नीति दूसरे प्रतिद्वंदी को मानसिक गुलाम बनाने की, नीति बिना ुद्ध किये गंतव्य को प्राप्त करने की | वक्त कहें या समय तेजी से बदल रहा है लोगों कि मानसिकता तेजी से बदल रही है, किसी के ऊपर सीधा हमला करेंगे तो शायद बदले में कुछ नुक्सान आपको भी झेलना पड़े | सम्भवतः पर वार मानसिक कीजिये, वार मानसिकता पर कीजिये, वार विचारों पर कीजिये, वार सभ्यता पर कीजिये , वार संस्कारों पर कीजिये, वास्तविकता से कहीं दूर निकल, विचारों कि एक ऐसी दुनिया में जिसका कोई अर्थ ही नहीं, ये बातें वास्तविक हैं , उदाहरण अपने देश का ही लीजिये , अपनी मान , मर्यादा , परम्पराओं , संस्कारों , पूर्वजों के अनमोल वचनों और अपनी बहुमूल्य सभ्यता को तेजी से बदलने के इक्छुक एक देश, जिसे अपनी मान मर्यादाएं एक बंदिश या बेड़ियों सामान प्रतीत होती हैं |क्या ये एक प्रोपोगेंडा के तहत एक देश को मानसिक तौर पर गुलाम बनाने कि साजिश नहीं ??
आजादी बोलने की , आज़ादी अभिव्यक्ति की , आज़ादी उन मान मर्यादाओं से , आज़ादी उन संस्कारों से , आज़ादी उस स्वर्णिम इतिहास से जिसका गवाह ये समग्र संसार है, जिस सोने कि चिड़िया के चमक को पूरे विश्व ने महसूस किया आज़ादी उस चमक से| आखिर ये कैसी आज़ादी है , चर्चा का विषय है , अभिव्यक्ति कि या आरम्भ उस विध्वंश कि जो एक सभ्यता को निगल जाना चाहती है | पर चर्चा करें कैसे क्यों कि चर्चा का अधिकार पढ़े लिखे उस समाज को नहीं जो इस समाज के लिए अपने प्राणों तक तक को न्योछावर कर रहा है , अपितु उसे है जो विदेशी मानसिकता को अधिक प्रभावशाली बता, देश को आज़ादी दिलाने में जुटा है | पुनः आज़ादी या गुलामी ?? ये निश्चित ही एक व्यक्तिगत फैसला है जो आपके ऊपर है | चर्चा आवश्यक है, चर्चा तो अनिवार्य है, प्रोपोगेंडा को समझने कि आवश्यकता है , प्रोपोगेंडा पर प्रहार करने की आवश्यकता है , गुलामी से निकलने कि आवश्यकता है |गुलामी से उभरने कि आवश्यकता है , गुलामी से उभारने कि आवश्यकता है , इस देश को समाज को , समाज के उस वर्ग को जिसे समाज , समाज का अंश ही नहीं समझता ,समाज के उस वर्ग को जो इस समाज से सर्वोपरि खुद को समझ बैठा है , समाज के उस वर्ग को जिसके पास इसे विचारने का समय ही नहीं |
प्रोपोगेंडा और विश्व पर चर्चा होगी परन्तु जरा इस देश कि तात्कालिक हालत में प्रोपोगेंडा को समझते हैं |
“गाय” एक प्रोपोगेंडा , कैसा ?? खुद को सत्ता में काबिज रखने का | सम्भवतः आपको आशय स्पष्ट हो रहा होगा , विचारिये क्या वास्तविक परिस्थिति वैसी है जैसी दिख रही है या जैसा प्रोपोगेंडा बनाने कि चेष्टा कि जा रही है ?? धर्म से ऊपर जात से ऊपर , सोचिये विचारिये गाय के महत्व को, न कि उसे एक प्रोपोगेंडा बनने दीजिये, न कि उसे एक सीढ़ी बनने दीजिये स्विस बैंक में अकॉउंट खोलने कि |
“तीन-तलाक” दर्द को भाप के विचारिये उस परिस्थिति को जब एक असहाय माँ न जाने किस क़ानूनी बंधन के तहत मजबूर हो जाती है , घुट- घुट के मरने के लिए | बात कि गंभीरता को भांप जाएंगे तो शायद धार्मिक रंग नहीं देंगे |
मानसिक गुलामी इस प्रोपोगेंडा का एक अभिन्न अंग है , सर्वाइवल ऑफ़ फैरेस्ट का एक उदाहरण है आज कि शिक्षा व्यवस्था | पहले एक प्रोपोगेंडा का निर्माण करना कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा विद्यार्थी ही श्रेष्ठ है , उसके पश्चात अंग्रेजी मध्यम स्कूलों को आम लोगों कि पहुंच से इतना दूर कर देना कि आम आदमी अपने आम होने पर जीवन भर अफ़सोस करे , भारत जैसे देश में स्कूलों में हिंदी बोलने पर दंड देना कहाँ तक सही है फैसला आपका |
क्या ये देश को मानसिक गुलामी कि ओर धकेलने का एक षड़यंत्र नहीं , अवश्य है विचारिये |
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